Wednesday, December 27, 2017

रंग - एक गीत | Rang - A Song of Colors

रंग

‘रंग’ लफ्ज़ के कई रंग हैं। बुल्ले शाह कहते हैं - ‘हर रंग विच तू बसदा है।’ कुमार विकल ने लिखा - ‘रंग खतरे में हैं।’ और लाल्टू सोचते हैं - ‘लोग ही चुनेंगे रंग।’ वे आगे कहते हैं - ‘जैसे कविता जीवन है, गीत रंग है। कविता वेदना है, संवेदना है, गीत सतरंग है, नवरंग है, रंगारंग है। जीवन में प्यार अर्थ लाता है। रंग स्वाभाव से ही इश्क-मिजाज है। चाहत में से रंग कागज पर बिखरे। जाने किस कोने में, जाने कब लिखी थीं कुछ बातें। गीत की तलाश में किसी पल सामने आ गईं।’ और इस तरह शुरू हुआ हमारा यह रंगों का सफर जुलाई 2017 में।

शुभदीप और उनके पिताजी के कई दिनों के विचार-विमर्श के बाद सुरों को दिशा मिली। सुरों का आवरण पहनकर रंग और निखरने लगे। धीरे-धीरे सोमा ने गाने का अभ्यास शुरू किया। संयोग से इसी समय संदीपन और अमृता ने कलकत्ता से हैदराबाद आने की योजना बनाई। दशहरे की छुट्टियों में वो लोग यहाँ आए और शुरू हुआ बोल-सुर-स्वरों का संगम।पर मुश्किलें राह में कम नहीं थी। संदीपन को बदलते मौसम में ठण्ड लग गई और बैठे हुए गले में ही उसने रिकॉर्डिंग की। अपनी मातृभाषा न होने के कारण ‘मेरा/मेरी/मेरे’ जैसी कई गलतियां होती गईं। (सोमा तो अभी भी गुनगुनाते हुए कई बार गलती कर बैठती है !) हिंदी में सही सही उच्चारण करना आसान नहीं था अमृता के लिए। ऊपर से, रिकॉर्डिंग के पहले दिन शुभदीप ने सोमा को अपनी गायकी का अंदाज बदलने को कहा। कहा, अमृता और सोमा, दोनों अलग अलग अंदाज में गायें, दोनों की गायकी का मिश्रण हो। समय बहुत कम था पर हार मानने वाला भी कोई न था। देखते देखते एक हफ्ता गुजर गया और उनके वापस जाने का समय नजदीक आ गया। उन थोड़े दिनों में गीत रिकॉर्ड हो जाएगा, सोचा न था। लौटने वाले दिन सुबह बस दो घंटों का समय था। उन्हीं दो घंटों में पूरा वीडियो भी रिकॉर्ड करना था। रिटेक का कोई ऑप्शन नहीं था। वीडियो रिकॉर्डिंग में इंद्रनील ने भी पूरा सहयोग दिया।  

फिर उनके जाने के बाद अगली चुनौती थी संगीत की व्यवस्था और संपादना जिसमें शुभदीप को और दो महीने लग गए।पहले कभी किसी हिंदी गीत पर सुर नहीं दिया था शुभदीप ने। मेरे लिए भी एक नई चुनौती थी इस गीत के वीडियो को तैयार करने की। गीत के सार को और अपनी भावनाओं को छवि के माध्यम से प्रकाश करने की कोशिश की मैंने। इस तरह का वीडियो बनाने का मुझे कोई अनुभव नहीं था। शुरू में असंभव लगता था। पर धीरे धीरे कुछ हो ही गया। 6 महीनों की मेहनत रंग लाई।

कल तैयार हुए गीत को देखकर संदीपन कहने लगा ‘हर रोज का गुजरता जीवन हम पर कई रंग लगाता है। और समय के साथ कुछ रंग फीके भी पड़ जाते हैं। पर कुछ रंग हमेशा के लिए दाग छोड़ जाते हैं।’

बहरहाल, अब आप सबके लिए…

-कविता 




[Laltu blogs @ http://laltu.blogspot.com/

Credits:
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Music Composition & Arrangement: Subhadip Mitra
संगीत संरचना एवं व्यवस्था: शुभदीप मित्र

Lyrics: Laltu
बोल: लाल्टू

Vocal: Amrita Ganguly, Soma Chakrabarty, Sandipan Ganguly
स्वर: अमृता गांगुली, सोमा चक्रबर्ती, संदीपन गांगुली

Video Concept & Direction: Kavita Mitra
छवि संकल्पना एवं परिचालना: कविता मित्र

Camera, Editing & Mixing: Kavita Mitra & Subhadip Mitra
कैमरा एवं संपादन: कविता मित्र एवं शुभदीप मित्र

Audio Editing & Mixing: Subhadip Mitra
ध्वनि संपादन: शुभदीप मित्र

Acknowledgement: Srishti Mitra, Niharika Chakrabarty, Sanjib Kumar Mitra, Indranil Chakrabarty, Abhijit Mitra, Kaberi Mitra
कृतज्ञता: सृष्टि मित्र, निहारिका चक्रबर्ती, संजीब कुमार मित्र, इंद्रनील चक्रबर्ती, अभिजीत मित्र, काबेरी मित्र

Special thanks to:
Shana (For the English translation)
Rashid Ahmad & SM Yusuf Abedi (For Urdu subtitles)
विशेष धन्यवाद
शाना (अंग्रेजी अनुवाद के लिए)
राशिद अहमद और एस एम यूसुफ अाबेदी (उर्दू सबटाइटिल्स के लिए)

Footages courtesy of Videvo, hosted by Videvo.net
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Nighttime Ceremony Being Performed in Varanasi 
(https://www.videvo.net/video/nighttime-ceremony-being-performed-in-varanasi/6270)
Flock of Pigeons in Front of Jama Masjid
(https://www.videvo.net/video/flock-of-pigeons-in-front-of-jama-masjid/6443)
Silhouetted People Bathing in Ganges
(https://www.videvo.net/video/silhouetted-people-bathing-in-ganges/6273)
Mother and Baby Monkey by the Taj Mahal
(https://www.videvo.net/video/mother-and-baby-monkey-by-the-taj-mahal/6986)
Fast Paced Traditional Indian Drumming
(https://www.videvo.net/video/fast-paced-traditional-indian-drumming/7251)
Vendor Preparing Traditional Indian Street Food 
(https://www.videvo.net/video/vendor-preparing-traditional-indian-street-food-/6407)

Footages under Videvo Standard License, hosted by Videvo.net
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https://www.videvo.net/video/bee-on-flower-4/3671
https://www.videvo.net/video/bee-pollinating-and-a-curious-ant/3058
https://www.videvo.net/video/ants-carrying-dead-spider/4752
https://www.videvo.net/video/deers-rutting/3588

Other CC0 (https://creativecommons.org/publicdomain/zero/1.0/) media
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With Laltu
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Wednesday, May 17, 2017

আমাদের গানের গল্প | ভাষা বন্ধকালে | Bhāṣhā bandhakālē

আমাদের গানের গল্প 

ইন্দ্রনীলের কথা 

(১) 
বেলা একটা বাজে, পাততাড়ি গোটাচ্ছি, শনিবারের বারবেলা, বাড়ি ফিরবো। এমন সময় শুভদীপ ঢুকে ধপ করে চেয়ারে বসে বলল, “বুঝলে হে কবি, কিনে ফেললাম।” আমি অবাক হয়ে জিজ্ঞেস করলাম, “কী, ছাতা?” কয়েকদিন পরপর বৃষ্টি হওয়ায়, ছাতার কথাই প্রথম মাথায় এল। 
“দুর, কী ছাতার মাথা! পিয়ানো, হে পিয়ানো। একটা ডিজিটাল পিয়ানো।” 
“তুমি লিখবে, আমি সুর দেব, তাতে গান হবে, আর তারপরে লোকে গালি দেবে। আমাদের গালি দেবার একটা সুযোগ করে দেওয়া যাবে। কি বল?”, বলে শুভদীপ খিকখিক করে হাসতে লাগল। 
“কী যে হাবিজাবি বলছ। আমি হলেম গিয়ে কবি, তাও আবার আঁতেল কবি, আর আমি নাকি লিখব গান! বিমূর্ততার গুঁতো খেয়ে তো লোকজনের পালাই পালাই অবস্থা হবে। তখন আর শুধু গাল দেবে না, তার সাথে ক্যালাবেও,” আমি আতঙ্কিত হয়ে বললাম। 
“তুমি তো আর সেই কবিতা লিখবে না, যা পড়ে লোকে মাথা চুলকে দু দিন পরে বলবে ‘কী ভালো কবিতা’। লিরিক তো আর কবিতা নয়।” 
“সেটাই তো চাপ। নিজের জায়গা থেকে বেরিয়ে লেখা। তুমি আমার ফেঁসে যাবার রাস্তাটা পরিষ্কার করে রাখছ।” 

(২) 
এভাবেই শুরু হয়েছিল আমাদের গানের প্রস্তুতি। গত বছর শীতকালে। তবে এতো শুধু আমাদের গান নয়, সোমা আর কবিতা ছাড়া এই গান কোনদিন সম্ভব হত না। শুভদীপরা তখন ক্যাম্পাসের বাইরের এক বাড়িতে ছিল। ডিসেম্বর যখন এল মোটামুটি আমরা ঠিক করি যে এবার শুরু করা যেতে পারে। তা ভালো কথা – আমি লিখব, শুভদীপ সুর দেবে, সোমা গাইবে আর কবিতা পুরো প্রডাকশনটার দায়িত্বে থাকবে। ইতি মধ্যে শুভদীপ আমার কানের কাছে রোজ রীতিমত ক্যানেস্তারা বাজাতে শুরু করল – “সহজ কিছু লিখো।”

আমি বললাম, “তা কেন? এমন কিছু লিখব যা একটু নতুন হয়।”
আপনারাই বলুন, অ-য় অজগর আসছে তেড়ে, আমটি আমি খাব পেড়ে, এরকম কি লেখা যায়! তা আমি মোটামুটি একটা খসড়া তৈরি করে দেখাতেই হল বিপত্তি। শুভদীপ ‘হে ভগবান!’ বলে মাথায় হাত দিয়ে বসে পড়ল। 



“আমার মনে হয় শব্দ গুলো কেমন যেন ঝুল ঝেড়ে বের করা।” 

“তা বটে, কিন্তু আকাশের চাঁদের যুগ ছাড়িয়ে, মিনিবাস, ডটকম, দুধ খাওয়া ভালো ছেলে পেরিয়ে, ফড়িং, টানেল হয়ে যখন মোটামুটি যখন আমরা দিকভ্রান্ত যে টালার দিকে যাবো না টালির দিকে যাব, তখন মোটামুটি কোনও দিকে না গিয়ে, আকাশের দিকে তাকিয়ে বৃষ্টির দু ফোঁটা চোখে পড়লে মন্দ হবে না। সে জল চোখের জল না মেঘ থেকে পড়ল সে খোঁজের কী দরকার বল?” 

“বাপরে, এই হচ্ছে সমস্যা, কী বললাম আর কী নিয়ে কাব্যি করলে।” 

“আমি ভাই এ জন্মে এসব শব্দ গানে শুনিনি। গান ছাড়, কানে শুনেছি কিনা তার ঠিক নেই। ‘স্বপ্রজনন’, ‘অনিমিখ’, এ সব ভাই গলা দিয়ে নামছে না, আটকে যাচ্ছে। ওরে বাবা এ আবার কী? শুরুই হচ্ছে - ‘এভাবে নরম পেয়ে জীবন’। এর মানে কী, নরম আবার জীবন পায় নাকি! এ তো দেখছি ভরপুর আঁতলামি। আমি এই লেখার দায়িত্ব নিতে পারছিনা। বিধিবদ্ধ সতর্কীকরণ করে রাখা ভালো।” 

উত্তেজনা কমলে, দুদণ্ড হাঁপ ছেড়ে বলল, “লোকে বুঝবে তো?”

আমি বললাম, “না বোঝার তো কিছু দেখছি না। আর সব সময় শিল্প না বুঝলেও চলে, সঠিক অনুভবটাই আসল।” 

“বেশ। তা দাও দেখি, কিছু করা যায় কিনা। একটু পরীক্ষাই না হয় করা যাক। এমন সুর করব যা ভারতীয় শ্রোতার কাছে অচেনা। যেখানে যন্ত্র আর সঙ্গতের জন্য নয়, গলা আরকটি যন্ত্রের মতন। সব মিলিয়ে হবে গান, কেউ প্রাধান্য পাবে না।” 

সোমার কথা 

শুভদীপদা ট্র্যাকটা কাল রাতে ইমেল করে পাঠিয়েছে। সকালে ফোন করে বলল, “প্র্যাকটিস কর সোমা কালকে শুনব।” কিন্তু প্র্যাকটিস যে কী করব সে ভেবেই অস্থির হয়ে যাচ্ছি। এরকম কঠিন অবস্থায় তো কখন পড়িনি। এমনি গান গাওয়া আর রেকর্ডিংয়ের জন্য গান গাওয়া তো এক নয়। পাঁচটা ট্র্যাক চলছে তার মধ্যে গলা মেলানো কি সোজা? ঘর থেকে বেড়িয়ে ভাবলাম উবেরে করে অফিসে যাবার সময়টা কাজে লাগানো যাবে। আন্ড্রয়েড-এ ভয়েস রেকর্ডিং করা মটেই সোজা নয়, সে তো আমি জানি, লোকে যতই বলুক ভালো গলা। গাড়িতে উঠে দেখলাম এইরে হেড ফোনটা বাড়িতে ফেলে এসছি। অগ্যতা কী আর করা যাবে। আস্তে করে ফোনে ট্র্যাকটা চালিয়ে গাইতে লাগলাম। গাড়ি যখন টলিচৌকি পার হল, তখন এক ভারি মজার ঘটনা হল। ড্রাইভার সাহেব পিছন দিকে তাকিয়ে জানতে চাইল, “কী সুন্দর সুর দিদি, কথাগুলোর মানে কী?” হায়দ্রাবাদের ড্রাইভার, বাংলা জানে না, তাই সে মানে জানতে চেয়েছে। আমার মনটা হটাৎ খুব ভালো হয়ে গেল। আমাদের এই এত মাসের পরিশ্রমের ফসল একজন বাইরের লোকের প্রথম ভালো লাগল। আরও ভালো লাগল অচেনা ভাষা হলেও সে জানতে চাইছিল কথার মানে কী, কথার প্রাসঙ্গিকতা হারিয়ে যায়নি, এমনকি এক ভিনদেশীর কাছে। এই নানান ভাবনার সাথে গাড়ি এগিয়ে চলতে লাগল, গান ও শহরের মধ্য দিয়ে। 

কবিতার কথা 

আমার সাদা বাংলায় কোনো সমস্যা নেই, কিন্তু পিকনিককে বনভোজন বললে মুশকিলে পড়ে যাই। (তবু গর্বের কথা, বাংলাটা আমি অন্তত শেক্সপীয়রের থেকে ভালো জানি।) সে যাই হোক, গত শীতে ইন্দ্রনীল যে গানটা লিখলো, সেটা আমার মাথার মাইল খানেক উপর দিয়ে গেল। শুভদীপকে মানে জিজ্ঞাসা করতে এমন চোখ উল্টোলো যে আশাই ছেড়ে দিলাম মানে বোঝার। সে এক বিপদ। মানে বুঝিনা, কিন্তু মত দিতে হয় – ও যখন জিজ্ঞেস করে ‘এ প্যারার সুরটা চলবে?’, তখন বুঝি না বুঝি, কিছু বলতে হয়, না বললে ক্ষেপে যাবে। কিন্তু, ধীরে ধীরে, হাজার বার শুনতে শুনতে, কোন সময় জানি গানটার মধ্যে ঢুকে পড়লাম। কথা বুঝি আর নাই বুঝি, মনে এক ছবি ভেসে উঠল। এক এক করে নতুন ইনস্ট্রুমেন্ট জোড়ে, আর সে ছবিতে রং লাগে। একই সঙ্গে সোমার গলার পরিবর্তন-ও দেখলাম। 

এসব কথাই মনে ভিড় করে এলো, যখন একদিন শুভদীপ ঘোষণা করল, ‘মিক্সিং শেষ, এবার ভিডিওটা শেষ কর।’ সাদা-কালো আর কিছুটা রঙ – এ দিয়েই আমি ধরতে চেয়েছি মনের সেই ছবিটাকে। 

শুভদীপের কথা 

গানের কথা নিয়ে আর বললাম না, ইন্দ্রনীল অনেক বলেছে। আর নিজের সুর নিয়ে বলা আমার পক্ষে খুব মুশকিল। কল্পনা কি সবসময় বলে বোঝানো সম্ভব? তাই ওসব কথা থাক, বরং একটা অন্য কথা বলি। ২০১৭র মে মাস, আমাদের গান আর তার ভিডিও মোটামুটি ভাবে তৈরি। টেবিলের পাশে বসে কবিতা দেখলাম শেষ বারের মত দেখে নিচ্ছে সাব টাইটেলগুল ঠিক ঠিক টাইমে পড়ছে কিনা। 

“বুঝলে কবিতা, গানটা শোনার পর যে সমালোচনাটা সবার কাছ থেকে আসছে সেটা আমি আগেই জানতাম। আন্তর্জাতিক সঙ্গীতের সাথে আমদের পরিচয়টা খুবই কম। ভারতীয় সঙ্গীতের ধারায় সাধারণতঃ গানটা প্রধান হয়। আর বাকি সব যন্ত্র সঙ্গতের কাজ করে। বাকি পৃথিবীর ক্ষেত্রে সেটা অনেকাংশেই সত্যি নয়, যেখানে সব কিছু নিয়ে গান। তাই এই ফিডব্যাকটা আসবে সেটা ভেবেছিলাম।”
 

“তুমি কি সবার কথা শুনে যন্ত্রের ব্যবহার কমানোর কথা ভাবছো নাকি?” 

“না। আমার মনে হয়না সেটা করার দরকার আছে। তবে সবার মত পেয়ে বেশ ভালই হয়েছে। গানটা যে আমাদের পরিচিত লোকজনদের ভাল লেগেছে সেটাই আনন্দের।” 



এ যে গান, তা আমাদের নিজেদের আনন্দের জন্য। আর সেই আনন্দ আমরা সবার সাথে ভাগ করে নিতে চাই। এই যে আমরা সবাই মিলে হৈ চৈ করছি, সেটাই পাওনা।



Wednesday, May 10, 2017

The Thirsty Crow Song


It all started when our family from Kolkata visited us in Hyderabad. Srishti was literally counting the days, “Kakai (Shoumodip) is coming!” When they arrived, it was too hot to go out. But this didn't seem to bother the kids at all. They spent most of their time playing games on the mobile/laptop. It is amazing how they can play mobile games for hours without fighting.

Since they were spending too much time with screens, we tried to divert their attention elsewhere with this and that. Subhadip took them to the music room and asked them to sing songs, while he played the piano. Well, it turned out that the only common song both of them knew was the national anthem of India. After singing that for a couple of times, they were more than ready to go back to play games.






“What else can we sing?” 


They tried a few more new songs. 

“We've sung all the songs in the world!” declared Shoumodip. 

“Learning new songs takes ages. Can we do it tomorrow?” 

“Okay, then let's make our own song,” suggested Subhadip. 

“Really? What song can we make?” That seemed to arouse their interest. 

“Anything. Let's try this - এক দিন একটা কাক উড়ে বেড়াচ্ছিল (one day a crow was flying).”


“Can you make a song from that?”

“Yes. Why not?”


Subhadip's father suggested, “You could write a song on the thirsty crow story.”


“Okay, let's try.”

The seed had been sown. The kids took the job seriously. Pen in hand, they started writing with knitted brows. But, even before five minutes had passed, they started - 

“Mine is way better than yours! You write like a kid!” 

After some more competition and with some help from Subhadip and his father, it was ready.


On a summer day, a crow was flying.
“I need water.... Where is water?” It was crying.
Suddenly it saw a round pitcher.

“At last,” it said, “there is water.”

But the pitcher was too narrow, its neck too long.
The crow tried hard, but it all went wrong.

Then it saw some pebbles, round and small.

“There may be a way to drink it all.”

Plop! Plop! The stones filled the pitcher.
Slowly, (and) slowly up came the water.

“Yipee! Yipee!” It cried with delight.
Drinking all the water, it took a happy flight.





Subhadip quickly came up with an easy tune and they picked it up pretty fast but not without more fighting.


“You are not singing properly! Look at me! This is how you should say ‘there is water’! This should be sung with more strength.”


“Don't teach me. My voice is better than yours! ‘Water’ sounds better if you sing it softly ....”


But even among all these quarrels, one thing was plain – the urge to do it as best as they could; they got so involved that all other activities became secondary – even mobile games. They would practice for hours for the next two days!

Finally, we decided to record the song. The recording was another event! After a few practice rounds, there was a new complaint – 


“My voice is not audible at all. You are too loud!”


Slowly they realized that singing together is not like singing alone and it does not matter if you cannot distinguish your own voice all the time.


Meanwhile, the other family members were enjoying the change the kids were going through. The whole house was humming the tune. It wasn't too difficult to convince them to participate in the chorus. Even our Dida (Subhadip's grandmother) didn’t want to miss the fun and wanted to be a part of the chorus! Considering she is more than eighty, her spirit is amazing.


Then came the video recording. This was again a tedious job as everyone had their own suggestions and opinions. Also, they were to return to Kolkata the next day and so we had very little time to record. Subhadip’s uncle helped us with the camera.




Now, everybody is back home relishing the memories of the making of this song and eagerly waiting for the next opportunity to get together and create more magic.


- Kavita


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